कैसा था नन्हा बचपन वो माँ की गोद सुहाती थी , देख देख कर बच्चों को वो फूली नहीं समाती थी।
ज़रा सी ठोकर लग जाती तो माँ दौड़ी हुई आती थी , ज़ख्मों पर जब दवा लगाती आंसू अपने छुपाती थी।
जब भी कोई ज़िद करते तो प्यार से वो समझाती थी, जब जब बच्चे रूठे उससे माँ उन्हें मनाती थी।
खेल खेलते जब भी कोई वो भी बच्चा बन जाती थी, सवाल अगर कोई न आता टीचर बन के पढ़ाती थी।
सबसे आगे रहें हमेशा आस सदा ही लगाती थी , तारीफ़ अगर कोई भी करता गर्व से वो इतराती थी।
होते अगर ज़रा उदास हम दोस्त तुरन्त बन जाती थी , हँसते रोते बीता बचपन माँ ही तो बस साथी थी।
माँ के मन को समझ न पाये हम बच्चों की नादानी थी , जीती थी बच्चों की खातिर माँ की यही कहानी थी।
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